पिछले कई दिनों से उत्तर-पूर्वी भारत के कई हिस्से बाढ़ से जूझ रहे हैं.
इनमें बिहार, असम और पश्चिम बंगाल के कई इलाके शामिल हैं. यहां बाढ़ का आलम
ये है कि लोग अपने घरों को छोड़ कर सुरक्षित स्थानों की तरफ़ जा रहे हैं.
बाढ़ की इन्हीं घटनाओं के बीच कुछ ऐसे भी लोगों की ख़बरें आ रही हैं, जो इन हालातों में भी खुद से ज़्यादा दूसरे लोगों की परवाह करते हुए दिखाई दे रहे हैं. ऐसे ही लोगों में से एक हैं, पूर्णिया ज़िले के जलालगढ़ गांव के रहने वाले गिरजानंद ऋषि, जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए दूसरों की जान बचाने को तरजीह दी.
दैनिक भास्कर की ख़बर के मुताबिक, 13 अगस्त की रात जब गांव के ज़्यादातर
लोग सो गए, अचानक लोगों के घर में पानी घुसने लगा, जिससे हर तरफ़ अफ़रातफ़री
का माहौल बन गया. अफ़रातफ़री के इस माहौल के बीच गांव के ही रहने वाले
गिरजानंद ऋषि किसी फ़रिश्ते की तरह आये और लोगों को हिम्मत रखने को कहा.
गांव के रहने वाले 55 वर्षीय अरुलिया मसोमात का कहना है कि 'लालू टोला में करीब 108 परिवार के बीच 500 लोग रहते हैं. हमें लगा कि हम सबकी ज़िंदगी खतरे में है और किसी का बचना नामुमकिन है.'
वहीं गांव के अन्य बुजुर्गों का कहना है कि 'यदि गिरजानंद नहीं होता, तो हम लोगों का बचना नामुमकिन होता.' गिरजानंद कहते हैं कि 'चारों तरफ़ घना अंधेरा था. हर तरफ़ कोहराम मचा हुआ था. हमने नाव निकाली और बच्चे, महिलाओं के बाद दूसरे लोगों को कोसी नदी पार कराने लगे.'
इस काम में गिरजानंद का साथ गांव के ही एक अन्य शख़्स धीमा ऋषि ने दिया. दोनों ने मिल कर एक बार में करीब 10 से 15 लोगों को नाव में बैठा कर बैसा के पश्चिम घाट तक पहुंचाने का काम किया. यह क्रम लगभग 48 घंटे तक ज़ारी रहा. नाव में छेद होने के बावजूद दोनों जान पर खेल कर दो दिनों तक लगातार लोगों को सुरक्षित स्थान पहुंचाने में लगे रहे. इस काम को करते हुए गिरजानंद के बाईं हाथ में मोच आ गई, पर फिर भी ख़ुश होते हुए कहते हैं कि 'चलों लोगों की जान, तो बच गई.'
बाढ़ की इन्हीं घटनाओं के बीच कुछ ऐसे भी लोगों की ख़बरें आ रही हैं, जो इन हालातों में भी खुद से ज़्यादा दूसरे लोगों की परवाह करते हुए दिखाई दे रहे हैं. ऐसे ही लोगों में से एक हैं, पूर्णिया ज़िले के जलालगढ़ गांव के रहने वाले गिरजानंद ऋषि, जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए दूसरों की जान बचाने को तरजीह दी.
गांव के रहने वाले 55 वर्षीय अरुलिया मसोमात का कहना है कि 'लालू टोला में करीब 108 परिवार के बीच 500 लोग रहते हैं. हमें लगा कि हम सबकी ज़िंदगी खतरे में है और किसी का बचना नामुमकिन है.'
वहीं गांव के अन्य बुजुर्गों का कहना है कि 'यदि गिरजानंद नहीं होता, तो हम लोगों का बचना नामुमकिन होता.' गिरजानंद कहते हैं कि 'चारों तरफ़ घना अंधेरा था. हर तरफ़ कोहराम मचा हुआ था. हमने नाव निकाली और बच्चे, महिलाओं के बाद दूसरे लोगों को कोसी नदी पार कराने लगे.'
इस काम में गिरजानंद का साथ गांव के ही एक अन्य शख़्स धीमा ऋषि ने दिया. दोनों ने मिल कर एक बार में करीब 10 से 15 लोगों को नाव में बैठा कर बैसा के पश्चिम घाट तक पहुंचाने का काम किया. यह क्रम लगभग 48 घंटे तक ज़ारी रहा. नाव में छेद होने के बावजूद दोनों जान पर खेल कर दो दिनों तक लगातार लोगों को सुरक्षित स्थान पहुंचाने में लगे रहे. इस काम को करते हुए गिरजानंद के बाईं हाथ में मोच आ गई, पर फिर भी ख़ुश होते हुए कहते हैं कि 'चलों लोगों की जान, तो बच गई.'