राहुल गांधी की राजनीती : विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति को विफल बता कर सवाल खड़े कर रहे हैं और राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सोशल मीडिया में उसका नाम पप्पू बीजेपी ने ही वायरल किया

 
विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति को विफल बता कर सवाल खड़े कर रहे हैं। उनका आरोप है कि डोकलाम में झटका झेलने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को कड़क जवाब नहीं दिया, बल्कि एक के बाद एक मंत्रियों और अधिकारियों को चीन भेजकर और खुद अचानक वहां जाकर  यह संदेश दिया है कि भारत ने चीन के आगे घुटने टेक दिए हैं। विपक्षी दलों का यह भी आरोप है कि चीन ने नेपाल, भूटान, म्यांमार, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव व पाकिस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत बनाकर भारत को चारों तरफ से घेर लिया है और इस तरह मोदी की पड़ोसी देशों के साथ विदेश नीति को विफल  कर दिया है।

जबकि हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में अजीत डोभाल, सुषमा स्वराज और निर्मला सीतारमण आदि ने भारत-चीन संबंधों के मामले में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। आज जबकि चीन के राष्ट्रपति शी शिनपिंग दुनिया के सबसे ताकतवर नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं और आजीवन वहां राष्ट्रपति रहने वाले हैं तो उनसे लड़कर भारत को कुछ मिलने वाला नहीं था इसलिए उनसे मिलकर चलने में ही भलाई है। इसे प्रधानमंत्री ने तुरंत समझ लिया। वैसे भी चीन की ताकत आज दुनिया में बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। ऐसे में चीन को बंदर घुड़की दिखाने से काम बनने वाला नहीं था।

मोदी ने सभी देशों के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाने की कोशिश की
 
औपचारिक शिखर सम्मेलन अनेक दबावों के बीच हुआ करते हैं। उसमें नौकरशाही की बड़ी भूमिका रहती है। संधि और घोषणाएं करने का काफी दबाव रहता है। सांझे बयानों को तैयार करने में ही काफी मशक्कत करनी पड़ती है जबकि अगर दो देशों के नेता पारस्परिक संबंध बना लें, तो बहुत सी कूटनीतिज्ञ समस्याएं सुगमता से हल हो जाती हैं और उनके लिए नाहक वार्ताओं के दौर नहीं चलाने पड़ते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछले वर्षों की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि उन्होंने दुनिया के लगभग हर देश के नेता से अपने व्यक्तिगत संबंध बना लिए हैं। अब वह कभी भी किसी से फोन पर सीधे बात कर सकते हैं। यही उन्होंने चीन जाकर किया।

भारत-चीन सीमा पर आए दिन चीनी फौज डोकलाम जैसे उत्पात मचाती रही है। वहां की फौज सीधे कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर काम करती है, जिससे केवल सैन्य स्तर पर निपटना भारत के लिए आसान नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी ने इस चीन यात्रा में एक नया अध्याय जोड़ा है। अब चीन की सेना और भारतीय सेना के अधिकारियों के बीच नियमित संवाद होता रहेगा, जिससे गफलत की गुंजाइश न रहे।

इसके साथ ही इस यात्रा से भारत-चीन संबंध खासी गति से विकसित हुए हैं। इसी पर दोनों देशों का आॢथक उदारीकरण और सुरक्षा व्यवस्था निर्भर करती है। चीन का व्यापार अमरीका, यूरोप और भारत के साथ बहुत ज्यादा है। शेष विश्व के साथ उसका व्यापार घाटे का ही है। इस लिहाज से यदि चीन की भारत के साथ व्यापार बढ़त भारत-अमरीका व्यापार से ज्यादा हो जाती है  तो फिर दिल्ली और पेइङ्क्षचग को राजनीतिक मुद्दे अलग-अलग करने होंगे।

‘द्विपक्षीय मैत्री’ एवं सहयोग संधि के बाद दबाव में आएगा
 
पाकिस्तान भारत और पाकिस्तान के मध्य चल रहे विवादों में चीन की भूमिका किसी न किसी तरह से हमेशा ही पाई जाती रही है। चीन ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रमों को मदद देने का संकेत भी दिया था। चीन के सरकारी मीडिया ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अपने एक संपादकीय में लिखा था कि यदि पश्चिमी देश भारत को एक परमाणु ताकत के रूप में स्वीकारते हैं और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बढ़ती परमाणु होड़ के प्रति उदासीन रहते हैं तो चीन चुप नहीं बैठेगा। लेकिन अब ‘द्विपक्षीय मैत्री’ एवं सहयोग संधि के बाद पाकिस्तान दबाव में आ जाएगा। भारत चीन की मार्फत पाकिस्तान को आतंकवाद नियंत्रित करने के लिए मजबूर कर सकता है। साथ ही चीन को इस बात के लिए राजी कर सकता है कि वह मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित किए जाने की अंतर्राष्ट्रीय मांग का विरोध न करे। साथ ही परमाणु शक्ति के मामलों में भारत और चीन के बीच में जो कई मूल मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उलझ रहे थे, उनका भी समाधान होने की संभावना है। जाहिर है कि अजीत डोभाल ने इन परिस्थितियों से निपटने के लिए पर्दे के पीछे रहकर काफी मेहनत की है। इसके साथ ही चीन ने भारत को मुक्त व्यापार समझौते का सुझाव दिया है  ताकि दोनों एशियाई देशों के बीच संबंधों को व्यापक प्रोत्साहन दिया जा सके।

भारत और चीन संबंधों में सुधार दोनों ही देशों के हित में है। प्रश्न है कि  क्या यह सुधार भारत को अपनी सम्प्रभुता और सुरक्षा की कीमत चुकाकर करना चाहिए। क्या चीन पर भरोसा किया जा सकता है कि भविष्य में वह धोखा नहीं देगा? उम्मीद के सहारे दुनिया टिकी है। बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में दोनों देशों के लिए यही बेहतर है कि वे मिलकर चलें, और एक बड़ी ताकत के रूप में उभरें, जिससे क्षेत्र का आॢथक विकास भी तेजी से हो सकेगा।