25 जून, 1975 : स्वतंत्र भारत का एक काला दिन


सत्ता राजनेता को भ्रष्ट करती है और जब सत्ता किसी एक राजनेता के ही इर्द-गिर्द घूमने लगती है तो समझ लो देश किसी महान विपत्ति की ओर बढऩे वाला है। स्वतंत्र भारत में भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता के इसी मद में सबको हाशिए पर धकेलती चली गईं। अपने विरोधी पक्ष के नेताओं पर ही उनकी कृपा दृष्टि नहीं रही बल्कि अपनी ही पार्टी के धुरंधर नेताओं को भी उन्होंने राजनीति में धूल चटा दी। कांग्रेस को ही इंदिरा-कांग्रेस बना लिया।

1967 से 1984 तक चल सो चल का समय रहा। राजनीति में इंदिरा जी तूफान की तरह आगे बढ़ती चली गईं। कहीं इंडियन नैशनल कांग्रेस में ‘सिंडीकेट’ नेताओं को 1969 में पीछे धकेला तो कहीं बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया, कहीं देसी राजाओं के ‘प्रिवी-पर्सिज’ को बंद कर दिया तो कहीं न्यायपालिका में अपने चहेते न्यायाधीश ए.एन. राय को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया। सुप्रीम कोर्ट में सीनियर मोस्ट जज जे.एम. शेलर, के.एस. हेगड़े और ग्रोवर की सीनियोरिटी को दरगुजर कर दिया। 

कहीं ‘गरीबी हटाओ’ तो कहीं बीस सूत्री प्रोग्राम के नारे श्रीमती इंदिरा गांधी के राज में उछाले जाने लगे। कहीं ‘नसबंदी’ का जोर तो कहीं बेटे संजय गांधी की जय-जयकार होने लगी। श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री के प्रिंसीपल सैक्रेटरी पी.एन. हक्सर ने अफसरशाही को सत्ताधारी पार्टी का पिछलग्गू बन जाने का आह्वान किया। उन्हीं के राज में कांग्रेस प्रधान देव कांत बरुआ ने नया नारा ईजाद किया, ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’। 1971 तक आते-आते श्रीमती इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़ एक नया देश ‘बंगलादेश’ बना दिया। स्वयं ‘भारत रत्न’ देश का सर्वोच्च सम्मान अपने नाम कर लिया। विरोधी नेता भी कहने लगे श्रीमती इंदिरा गांधी तो साक्षात दुर्गा हैं। जब सब कहीं सत्ता ही सत्ता हो तो राजनेता को दिन को भी तारे नजर आने लगते हैं। सत्ता सिर चढ़ बोलने लगती है। कुछ-कुछ वर्तमान राजनीति को भी श्रीमती इंदिरा गांधी जैसा चस्का लगता जा रहा है। जब पार्टियां घट जाएं और व्यक्ति की जय-जयकार होने लगे तो देश विपत्ति की ओर बढऩे लगता है। पार्टियां समुद्र हैं व्यक्ति उसमें बूंद है। सागर में बूंद का क्या महत्व?

1967 से 1971 का समय इंदिरा जी का ‘स्वर्ण काल’ था। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 का इक्कीस महीने का कार्यकाल विरोधियों को कुचलने और राजनीति में ‘हर कहीं इंदिरा ही इंदिरा’ कहे जाने का काल था। इन इक्कीस महीनों में, सभी विपक्षी नेता जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, राज नारायण, मोरार जी भाई देसाई, चौ. चरण सिंह, आचार्य कृपलानी, लाल कृष्ण अडवानी, अरुण जेतली, सतेन्द्र नारायण सिन्हा, महारानी गायत्री देवी, मधुलिमये, मधु दंडवते, राम कृष्ण हेगड़े और लाला जगत नारायण जैसे नेताओं को जेल में बंद कर दिया। विपक्ष के ही नहीं अपनी कांग्रेस के भी कई नेताओं को सलाखों के पीछे भेज दिया। 


संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आधी रात को राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से आपातकाल की घोषणा करवा दी। देश भर की प्रैस मीडिया की बिजली काट दी। इसमें प्रमुख पंजाब के ‘हिन्द समाचार ग्रुप’ प्रैस वालों को साधुवाद देना चाहिए जिन्होंने ट्रैक्टर से अपने समाचार पत्रों को छापना जारी रखा। फिल्मी गायक किशोर कुमार के गानों को रेडियो, टैलीविजन पर बजाना बंद कर दिया। फिल्म ‘आंधी’ और ‘किस्सा कुर्सी का’ पर प्रतिबंध लगा दिया। लोगों के मौलिक अधिकार छीन लिए और प्रैस का गला घोंट दिया। परिवार-नियोजन के नाम पर जबरदस्ती लोगों की नसबंदी होने लगी। जिन लोगों ने जहां कहीं थोड़ा बहुत दुकानों के आगे अतिक्रमण किया था, उन पर बुल्डोजर फेर दिया गया। 

एक घोर सन्नाटा इन 21 महीनों में देश में पसरा रहा। फिर 21 मार्च, 1977 को देश में लोकसभा के चुनावों की घोषणा अकस्मात कर दी। लोकसभा चुनावों में श्रीमती इंदिरा गांधी बुरी तरह हारीं। देश में मोरार जी भाई देसाई के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनी, पर मात्र अढ़ाई साल में जनता पार्टी की सरकार अपने भार से स्वयं गिर गई। इंदिरा गांधी 1980 में पुन: प्रधानमंत्री बनीं। लोकतंत्र धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा। आज भारत का लोकतंत्र सब से विशाल और सबसे सफल है। भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले दिनों नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में ठीक ही कहा था, ‘लोकतंत्र हमें भेंट स्वरूप नहीं मिला बल्कि हमारा यह लोकतंत्र हमारे संघर्षों का फल है।’ आज 25 जून को भारत के लोग वचन लें कि हमें इस लोकतंत्र की हर हाल में रक्षा करनी है।
  • -मा. मोहन लाल पूर्व ट्रांसपोर्ट मंत्री, पंजाब