दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 के 70 सीटों के नतीजे पर गौर करें तो आप(आम आदमी पार्टी) को 67 सीटें हासिल हुई थी और उसका वोट प्रतिशत 54.30% रहा था। जबकि भाजपा के हिस्से में 3 सीटें आई थीं और उसके हिस्से में 33% वोट आए थे। वहीं कांग्रेस इस चुनाव में अपना खाता नहीं खोल पाई थी और उसके हिस्से में 9.7% वोट आए थे। मतलब साफ था कि क्योंकि कांग्रेस के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा सफलतापूर्वक आम आदमी पार्टी नवे अपने पाले में कर लिया था। 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 24.6% था जो घटकर 2015 में 9.7% हो गया था। लेकिन ठीक दो साल बाद, 2017 के MCD चुनावों में, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी 272 में से 49 सीटों पर जीत हासिल कर पाई। AAP का वोट शेयर आधे से भी कम हो गया पार्टी को अब सिर्फ 26% दिल्लीवासियों का समर्थन मिला। 37% वोट शेयर के साथ भाजपा ने 181 सीटें जीतीं। 21% वोट शेयर और 31 सीटों के साथ कांग्रेस तीसरे स्थान पर थी।
2013 के विधानसभा चुनाव में आप को करीब 30% वोट मिले थे, 2015 में यही वोट शेयर बढ़कर 54% से ज्यादा हो गया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 46% वोट शेयर के साथ सभी 7 सीटें जीतीं थी, वहीं 2019 में भी सभी सीटें भाजपा के खाते में आईं लेकिन उसका वोट शेयर 56% पर पहुंच गया। वहीं ध्यान दें तो 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 10% से कम था, लेकिन 2017 के नगर निगम और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसका वोट शेयर 20% से ज्यादा रहा। पिछले 6 साल में दिल्ली में 5 चुनाव हुए हैं। इनमें 2 लोकसभा, 2 विधानसभा और एक नगर निगम चुनाव हैं।
इन पांचों चुनावों के नतीजे पर गौर करें तो पता चलता है कि आम आदमी पार्टी (आप) विधानसभा चुनाव में मजबूत तो दिख रही है लेकिन उसके वोट बैंक में एक बार फिर से कांग्रेस सैंध लगाने की कोशिश में कामयाब हो रही है जबकि भाजपा का जनाधार लगातार बढ़ रहा है। 2013 के विधानसभा चुनाव में आप पहली बार चुनाव में उतरी। पहले ही चुनाव में आप ने 70 में से 28 सीटें जीतीं और 29.4% वोट हासिल किए। आप के आने से सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ। उसकी सीटें 43 से घटकर 8 पर पहुंच गई। वोट शेयर भी 40% से कम होकर 25% पर आ गया। इसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में आप का वोट शेयर 24% बढ़ा, 39 सीटों का भी इजाफा हुआ। आप इस समय कांग्रेस के वोट बैंक में सैंध लगाने में कामयाब रही थी।
लेकिन 2017 के एमसीडी चुनाव के दौरान महज दो साल में जिस तरह से आप को झटका लगा उसके वोट शेयर में गिरावट आई उसने केजरीवाल को शांत कर दिया। इससे पहले उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कई बार हमला करते हुए कायर, मनोरोगी और ना जाने कैसे-कैसे शब्दों का प्रयोग किया जिसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ा। हर उस वादे के लिए, जो उन्होंने पूरा नहीं किया था, उनका सिर्फ एक ही बहाना था- मोदी जी ने काम नहीं करने दिया। लेकिन वह जानते थे कि वह उस बहाने से दिल्ली की जनता को बहुत देर तक बेवकूफ नहीं बना सकते हैं। केजरीवाल को पता था कि उन्होंने दिल्ली विधानसभा केवल इसलिए जीती क्योंकि कांग्रेस ने हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा की जीत के बाद अजेय दिखने वाले नरेंद्र मोदी को हराने के लिए अपना वोट शेयर हस्तांतरित किया था। लेकिन उस उद्देश्य को हासिल करने के बाद कांग्रेस ने अपने खोए हुए जनाधार को फिर से हासिल करने के लिए काम करना शुरू कर दिया और नतीजतन, एमसीडी चुनावों में AAP का वोट शेयर नीचे आ गया, जो 2013 के विधानसभा चुनावों में उसके पास था।
इसके बाद केजरीवाल को वास्तविकता का एहसास हो गया कि भाजपा को रोकने और आम आदमी पार्टी को सत्ता में बनाए रखने का एक ही तरीका है कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन। इसलिए एमसीडी चुनावों के बाद, उन्होंने कांग्रेस को लुभाना शुरू कर दिया। और फिर जब 2019 के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई, तो उन्होंने सोनिया गांधी को इसका प्रस्ताव भी दिया और उन्होंने इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकारा भी। केजरीवाल ने कांग्रेस से आप के साथ हाथ मिलाकर दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर गठबंधन के रूप में लड़ने का अनुरोध किया। लेकिन कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि एक दिल्ली में कांग्रेस ने 15 वर्षों तक शासन किया था, वह आम आदमी पार्टी के साथ दूसरी भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसे में कांग्रेस अकेले लोकसभा चुनाव में गई। कांग्रेस को पता था कि दिल्ली की राजनीति में नंबर 2 के स्थान पर दावा करने के लिए उसे ऐसा करना जरूरी है। ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस खुद को दिल्ली के सिंहासन के दावेदार के रूप में प्रोजेक्ट कर सके और वह इसमें सफल हुए। कांग्रेस सात लोकसभा सीटों में से पांच में 22.5% के वोट शेयर के साथ दूसरे स्थान पर रही। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सात में से सिर्फ दो सीटों पर दूसरे नंबर पर आ पाई। तीन सीटों पर तो आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई। आम आदमी पार्टी का वोट शेयर दो साल पहले हुए एमसीडी चुनावों में 18% था जो 26% से 8% कम हो गया था। भाजपा ने 56.58% वोट शेयर के साथ 2014 लोकसभा चुनाव के मकाबले 10% अधिक मत प्राप्त किया था जबकि 2017 के एमसीडी चुनाव में उसे पहले से 19% अधिक मत मिले थे। परिणामों ने संकेत दे दिया था कि भले ही आप और कांग्रेस ने भीतरखाने मिलकर भाजपा को हराने की जुगत भिड़ाई हो पर दोनों ही पार्टियां सातों सीटों को बचाने में नाकामयाब रहीं। 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा को 7 में से 7 सीटों पर विजय मिली और उसका वोट प्रतिशत 56.50% रहा जबकि आम आदमी पार्टी को 18.10% वोट और कांग्रेस के हिस्से में 22.50% प्रतिशत वोट आए। इस सब के बीच एक खास चीज जो देखने के लिए मिली वह यह थी कि दिल्ली की सभी 70 विधानसभा सीटों में से 65 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा का दबदवा रहा जबकि शेष पांच विधानसभा क्षेत्रों में नेतृत्व करने वाली पार्टी कांग्रेस थी, न कि आम आदमी पार्टी।
ऐसे में यह बात गौर करने लायक है कि आप ने 70 विधानसभा क्षेत्रों में से एक में भी बढ़त हासिल नहीं की थी। मतलब साफ था कि दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी की किस्मत का ग्राफ अब नीचे जा रहा है। दिल्लीवासियों को यह पता लग चुका था कि चार साल में केजरीवाल ने कुछ किया नहीं सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार के माथे पर काम नहीं करने देने का ठीकरा फोड़ते रहे। लोग समझ गए थे कि केजरीवाल और उनकी सरकार दिल्ली के लोगों के लिए कुछ भी बेहतर नहीं कर सकती है। क्योंकि दिल्ली हरियाणा और पंजाब जैसा पूर्ण राज्य नहीं है। आम आदमी पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव को पूर्ण राज्य के दर्ज दिलाने के वादे पर लड़ा था। जिसपर जनता भरोसा नहीं कर पाई। इसलिए चुनाव से ठीक छह महीने पहले केजरीवाल सरकार ने अपनी रणनीति बदल दी। वह मतदाताओं को लुभाने के लिए अपनी आजमाई हुई रणनीति के तहत काम करने पर आमदा हो गई। अक्टूबर में, उन्होंने डीटीसी बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा की घोषणा की और अगस्त में, मध्यम वर्ग के मतदाताओं को फंसाने के लिए 200 यूनिट बिजली फ्री करने का ऐलान कर दिया था। उनकी बाकी पहलें- बेहतर स्कूल, छात्रों का बेहतर प्रदर्शन, मुहल्ला क्लीनिक। ये सभी प्रचार पार्टी उन संपन्न वर्ग के मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कर रही है जो अपने लिए सरकार से कुछ नहीं चाहते लेकिन सरकार जब गरीबों के लिए कुछ करना चाहती है तो वह अच्छा महसूस करते हैं। ऐसे में केजरीवाल सरकार की मंशा ऐसे समृद्ध मतदाताओं को इसके जरिए लुभाने की रही है।
इस पांच साल में केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के कुछ स्कूलों सजाया और उन्हीं विद्यालयों के वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित किए गए ताकि लोगों को यह विश्वास हो सके कि केजरीवाल ने सरकारी स्कूलों को बदल दिया है। जबकि यह सच्चाई से बहुत दूर है। यही कहानी मोहल्ला क्लीनिक की है। 90% मोहल्ला क्लीनिक बुरी स्थिति में हैं। जब भी कभी अपने दोस्तों या परिचितों से पूछता हूं कि मोहल्ला क्लीनिक को लेकर आप केजरीवाल सरकार की सराहना करते हैं, क्या कभी खुद उन्होंने किसी मोहल्ला क्लिनिक में इलाज कराया है तो जवाब नहीं में मिलता है। इससे पता चलता है कि प्रचार किस तरह से काम करता है। कोई भी अपने बच्चों को इन “नए अवतार में तैयार सरकारी स्कूलों” में नहीं भेजता है, लेकिन बताया जाता है कि केजरीवाल ने स्कूल शिक्षा प्रणाली के लिए चमत्कार किया है। बीमार पड़ने पर किसी को भी मोहल्ला क्लीनिक में आने का कभी मन नहीं हुआ, लेकिन बताया जाता है कि मोहल्ला क्लीनिक के मॉडल की चर्चा विश्वस्तर पर हो रही है। ऐसे में लगता है कि केजरीवाल आगामी लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन से भी बुरा प्रदर्शन करनेवाले हैं। हालांकि कुछ “सर्वेक्षणों” से संकेत मिलता है कि AAP फिर से दिल्ली को क्लीन स्वीप करने जा रही है। यह काफी हैरान करनेवाला है।
मतलब साफ है कि यह सर्वेक्षण भाजपा विरोधी मीडिया के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है, जो AAP के पक्ष में भाजपा विरोधी मतों का एकीकरण कराना चाहते हैं। इन मनगढ़ंत सर्वेक्षणों के साथ, वे दिल्ली के भाजपा-विरोधी मतदाताओं को बताना चाहते हैं कि देखो, इन चुनावों में भाजपा को हराने वाला एकमात्र व्यक्ति अरविंद केजरीवाल है, इसलिए कांग्रेस को वोट देकर अपना वोट मत बर्बाद करो। अब यह रणनीति काम करने वाली है या नहीं, यह देखना बाकी है। लेकिन इन सर्वेक्षणकर्ताओं के लिए मेरा सवाल सरल है कि पिछले छह महीनों में ऐसा क्या बदल गया है कि AAP का वोट शेयर 18% से बढ़कर 50% हो जाएगा? अगर मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूलों का कायापलट केजरीवाल की बड़ी उपलब्धियां हैं, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ आठ महीने पहले आप यह करिश्मा करने में कैसे चुक गई? क्या उन्हें लगता है कि दिल्ली के मतदाता इतने बेवकूफ हैं कि वे केजरीवाल को भूल जाएंगे, जो कहते हैं कि “हमने पांच साल में बहुत काम किया है” जबकि छह महीने पहले तक वही कहते थे कि “मोदीजी हमें काम नहीं करने दे रहे हैं। “
जबकि इस सब के बीच लगता है कि केजरीवाल के इन फ्री स्कीमों की बौछार को लेकर उनकी मंशा को दिल्ली की जनता भी अच्छी तरह से समझती है। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस इस चुनाव में AAP को जगह बनाने नहीं देने वाली है। कांग्रेस जानती है कि 2020 उनका नहीं है, लेकिन वह यह सुनिश्चित करना चाहती है कि केजरीवाल को दिल्ली की राजनीति से हमेशा के लिए बाहर कर दिया जाए, ताकि भविष्य में यह लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सीमित रहे। अगर हम आंकड़ों पर जाएं, तो यह पूरी संभावना है कि भाजपा अगले महीने दिल्ली में सरकार बनाएगी। मनोज तिवारी को दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष बनाने की पार्टी की रणनीति ने काम किया है- 2015 में AAP को वोट देने वाले पूर्वांचली मतदाताओं की बड़ी संख्या अब भाजपा को वोट दे रही है। इसके अलावा 2015 के विपरीत मुझे आज आम आदमी पार्टी के अभियान में कॉलेज जाने वाले युवाओं की कोई भागीदारी नहीं दिख रही है। 2015 में AAP को वोट देने वाले कई मध्यम वर्ग के मतदाताओं का अब इससे मोहभंग हो गया है। अरविंद केजरीवाल को जेएनयू के टुकड़े-टुकड़े गैंग के समर्थन ने निश्चित रूप से उनके खिलाफ काम किया है। और आखिरी नहीं बल्कि कम से कम केजरीवाल द्वारा दिल्ली में रहने वाले अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों का समर्थन, और सीएए-एनआरसी के लिए उनका विरोध “आम आदमी के ताबूत में आखिरी कील” साबित होनेवाला है। गैर-भाजपा वोटों के साथ कांग्रेस और AAP के बीच विभाजन, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता इस समय भी अपने चरम पर है। भाजपा दिल्ली विधानसभा चुनाव में बहुत अच्छी तरह से विजयी हो सकती है।