मधुमेह को अंग्रेजी में डायबिटीज कहा जाता है। इस बीमारी में शरीर की
धातुओं का क्षय होने लगता है तथा शर्करा अंगों की शक्ति प्रदान करने के
बदले मूत्रमार्ग से बाहर आने लगती है। मधुमेह का रोगी शारीरिक रूप से बड़ी
तेजी से अशक्त होने लगता है। सम्पूर्ण विश्व में मधुमेह की उत्पत्ति, कारण,
निवारण तथा दुष्प्रभावों पर शोध जारी है। भारत में भी चल रहे शोधों के
बेहतर परिणाम सामने आ रहे हैं। डायबिटीज स्पैशलिस्ट सैंटर के अध्ययन के
अनुसार सभी मधुमेह रोगियों को अपनी आंखों के भीतरी भाग का नियमित परीक्षण
कराते रहना चाहिए यह डायबैटिक रेटिनोपैथी के शुरुआती परीक्षण के लिए
अत्यन्त आवश्यक है।
अगर इसका पता प्रारंभिक अवस्था में ही चल जाता है तब तो इलाज संभव है
अन्यथा आंखों की रोशनी जा भी सकती है। मधुमेह के रोगियों को हिदायत दी है
कि वे हर वर्ष अपनी आंखों के भीतरी हिस्से का परीक्षण अवश्य करा लिया करें।
भारत में मधुमेह के रोगियों की संख्या बहुत बड़ी तादाद में है। मधुमेह के
दुष्परिणाम उन लोगों में विशेष तौर पर देखने को मिलते हैं जिनको यह रोग
1क्-15 वर्षो से है।
‘डायबैटिक रेटिनोपैथी’ मधुमेह के दुष्परिणाम का ही नाम है। इसमें रोगी
की आंख का पिछला हिस्सा प्रभावित होता है। इस हिस्से में ढेर सारी
रक्तवाहिनी नसें उभर आती हैं। ऐसा उसके ऊतकों के क्षतिग्रस्त हो जाने तथा
आक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति न हो पाने की स्थिति में होता है। ये
परिस्थितियां रक्त में शर्करा के कारण उत्पन्न होती है। रोगी के रेटिना में
पानी या रक्त का रिसना डायबैटिक रैटिनोपैथी का ही एक लक्षण होता है।
रेटिनोपैथी दो प्रकार की होती है-पहली ‘बैकग्राऊंड’ तथा दूसरी
‘प्रालीफरेटिव’। बैक ग्राऊंड रेटिनोपैथी मधुमेह के आंख पर दुष्प्रभाव की
प्रारंभिक अवस्था है। ‘प्रालीफरेटिव’ की स्थिति काफी बाद में आती है। अनेक
विकसित मुल्कों में डायबैटिक ‘रेटिनोपैथी’ के कारण मधुमेह के कई रोगियों की
आंखों की रोशनी जाती रही। इसका प्रमुख कारण जानकारियों का अभाव होना तथा
लक्षणों के प्रकट होने के बावजूद उचित डाक्टरी सलाह तथा इलाज न हो पाना भी
था। जानकारियों के अभाव में भारत में भी इन परिस्थितियों से गुजरना पड़
सकता है।
रेटिनोपैथी में सबसे बड़ा खतरा यह रहता है कि यह अधिकतर बगैर किसी लक्षण
के ही उत्पन्न हो जाती है। इसकी जांच साधारण आंख के परीक्षण द्वारा नहीं
हो सकती। आंखों के चिकित्सक जिन विधियों से आंख की दूसरी बीमारियों का पता
लगा लेते हैं, उन विधियों से ‘रेटिनोपैथी’ की जांच नहीं हो पाती है अर्थात्
इसका परीक्षण विशेष ढंग से करना होता है। तभी इसका पता चल पाता है। इस
बीमारी के शुरू होते ही अचानक आंखों से खून रिसना प्रारंभ हो जाता है तथा
आंखों की रोशनी कम होने लगती है।
इस अवस्था में यह अनुमान करना मुश्किल होता है कि इसका परिणाम क्या
होगा? इन्हीं कारणों से प्रतिवर्ष कम से कम एक बार मधुमेह के रोगियों को
अपनी आंखों के पिछले हिस्सों की जांच अवश्य करवाते रहना चाहिए। इसके इलाज
के लिए न तो कोई आंखों की चीरफाड़ ही करनी पड़ती है और न ही किसी प्रकार का
आप्रैशन ही करना होता है। सिर्फ लेजर किरण द्वारा इलाज किया जाता है जो
कुछ घंटों की ही प्रक्रिया होती है।
रेटिनोपैथी का प्रारंभिक अवस्था में ही पता लगाकर उसे आसानी से ठीक किया
जा सकता है परंतु उच्चावस्था में इसका उपचार अत्यन्त ही कठिन हो जाता है।
रेटिनोपैथी में कभी-कभी आंखों के आगे काली-लकीर सी दिखने लगती है। कुछ की
रोशनी धुंधली होने लगती है तथा कुछ लोगों में रक्तस्राव या पानी रिसने की
शिकायतें होने लगती हैं या किसी भी प्रकार का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता
है, फिर भी रेटिनोपैथी पनप सकती है। डायबिटीज के रोगियों की आंखों का
वार्षिक परीक्षण आवश्यक है ताकि वे रेटिनोपैथी के खतरे से बचे रहकर आंखों
के क्षतिग्रस्त होने से बचे रहें।
सुरक्षा के उपाय
* समय-समय पर आंखों की जांच करायें, यह जांच बच्चों में भी आवश्य क है।
* रक्त में कालेस्ट्राल और शुगर की मात्रा को नियंत्रित रखें।
* अगर आपको आखों में दर्द, अंधेरा छाने जैसे लक्षण दिखाई दें तो तुरंत चिकित्सक से मिलें।
* डायबिटीज़ के मरीज़ को साल में कम से कम एक बार अपनी आंखों की जांच करानी चाहिए।
* डायबिटीज़ होने के दस साल बाद हर तीन महीने पर आंखों की जांच करायें।
* गर्भवति महिला अगर डायबिटिक है तो इस विषय में चिकित्सीक से बात करे।