उधर अबोहर के सिविल अस्पताल की हालत दयनीय हो चुकी थी। प्रशासन ऐसी किसी आपातकाल स्थिति से निपटने को तैयार नहीं था। मगर, तब भी आतंकियों के जाते ही अपने दरवाजे खोल कर घायलों की किसी तरह मदद कर रहा था। उस समय कोई एंबुलेंस सर्विस नहीं थी। घायलों को हाथ से खींचने वाले ठेलों पर अस्पताल पहुँचाया गया।
सीमित प्रशासन के साथ अस्पताल जुटा था कि किसी तरह आतंकी हमले के शिकार लोगों को जीवनदान दे सकें। मगर, प्रशासन भी क्या करता? मरीजों की संख्या इतनी बढ़ गई कि कुछ देर बाद दवाइयों और सर्जिकल उपकरण कम पड़ने लगे। पट्टियाँ भी इतनी नहीं थीं कि हर घाव पर उसे बाँधा जा सके।
खालिस्तानी अपना आतंक मचा कर जा चुके थे। पीछे रह गए थे घायल और उनके रोते-बिलखते परिजन। अस्पताल एक ओर जहाँ अपने संसाधनों को खत्म होता देख रहा था, वहीं थोड़ी देर में अस्पताल का नजारा कुछ और था। बाजार के कई लोग ज्यादा से ज्यादा तादाद में घायलों को खून देने के लिए उमड़ पड़े।
गोलीबारी खालिस्तानियों के लिए शायद कम थी, उन्होंने दो बम ब्लास्ट कर के शहर को फिर दहला दिया। पूरी घटना में 22 लोग मौके पर खत्म हो गए, 10 ने अस्पताल में दम तोड़ा, कइयों ने पसलियाँ गँवा दीं, कुछ की अंतड़ियाँ बाहर आ गईं, किसी के पाँव अलग हो गए और कई को अन्य बुरी चोटें आईं। रिकॉर्ड कहते हैं कि इस बम ब्लास्ट में 45 घायल हुए थे।
हमले में मारे गए लोग
इस हमले की अनेकों कहानियाँ हैं, जिन्हें कभी दस्तावेज में नहीं समेटा गया। एक महिला, जिसने इस हमले में अपनी जान गँवाई, वह उसी दुकान में छिपी थी, जिसमें वह खरीददारी कर रही थी। जैसे ही आतंकी दुकान में घुसे और लोगों को मारना शुरू किया, महिला ने उसे पहचान लिया।
महिला ने हैरानी से कहा, “तू?”, कुछ देर के लिए दुकान में अपने परिजन को देख आतंकी सकपकाया लेकिन थोड़ी देर बार उसने कहा, “मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।” इसके बाद उसने महिला को गोलियों से छलनी कर दिया।
एक अन्य कहानी। 45 साल के गोबिंद नारंग जो घूम-घूम कर बने-बनाए कपड़े बेचते थे, उन्होंने गोली लगने के बाद एक दुकान में छिपने का निर्णय लिया। लेकिन उसी दुकान का मालिक शटर गिराकर वहाँ से भाग गया, क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि कोई घायल उनकी दुकान में छिपा है। बाद में स्वास्थ्य उपचार न मिलने के कारण गोबिंद चल बसे।
भाजपा और आरएसएस ने की घायलों की मदद
ये केवल चंद कहानियाँ हैं। ऐसे अनेकों मामले हैं, जब खालिस्तानियों ने हिंदुओं पर बर्बर हमले किए। अबोहर की घटना के बाद कई संगठन आगे आए। रिकॉर्ड बताते हैं कि कई भाजपा नेताओं ने और आरएसएस वर्करों ने घर जा-जा कर घायलों की मदद की थी। बाकी नेताओं ने शायद तब भी घर से बाहर न निकल कर खुद को सुरक्षित रखना जरूरी समझा था। बुजुर्गों से पूछने पर पता चलता है कि कई लोग अपने नेताओं के पास मदद के लिए गए थे लेकिन कोई मदद के लिए आगे नहीं आया।
हमले के बाद क्या हुआ
इस हमले के बाद पुलिस की कायरता और आपात स्थिति को लेकर स्वास्थ्य तैयारियों ने स्थानीयों के मन में गुबार भर दिया। कई जगह ऐसे मामले सामने आए, जब प्रशासन और पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन हुए। 10 मार्च 1990 को बड़ी तादाद में थाने की ओर मार्च निकाला गया। गुस्साए लोगों ने पुलिस की मोटरसाइकिल फूँक दी। पुलिसकर्मियों पर पत्थर फेंके गए और बाद में जाकर जिलाधिकारी राकेश सिंह ने किसी तरह भीड़ को शांत कराने का प्रयास किया, तो लोगों ने उनकी गाड़ी पर भी बेकाबू होकर पत्थर फेंके।
इसके बाद बिना चेतावनी के जनता पर पुलिस ने ओपन फायर कर दिया। इस फायरिंग में 18 साल के नवीन और 20 साल के राजेंद्र मारे गए। नियम के अनुसार, पुलिस चेतावनी देकर फायरिंग करती है, लेकिन नियमों को दरकिनार रख कर लिए गए फैसले के कारण 2 लोगों की जान चली गई।
12 मार्च 1993- बदले का दिन
घटना को देखते ही देखते दो ढाई साल बीते, लेकिन स्थानीयों में गुस्सा कम नहीं हुआ। 17 अक्टूबर 1992 में डीएसपी सुरजीत सिंह ग्रेवाल अबोहार में तैनात किए गए। अपनी तैनाती के पहले दिन ही उन्होंने आतंकी हमले में मारे गए लोगों को न्याय दिलाने के लिए हमले के मास्टरमाइंड (चानन सिंह- Chanan Singh) को लाने का फैसला किया। उन्होंने गुरमुख सिंह (चानन सिंह के दामाद) की मदद की और मामले को शांत कराने का आश्वासन दिया। उन्होंने गुरमुख से निजी रिश्ते बनाए और उसे पूर्ण रूप से आश्वस्त कर दिया।
कुछ दिन बाद चानन सिंह ने अपने दामाद के घर में आना-जाना शुरू कर दिया। हालाँकि शुरू में वह काफी सतर्क रहता, लेकिन ग्रेवाल के खूफिया सूत्रों ने जानकारी दे दी कि चानन गुरमुख की बेटी की शादी और बेटे की शगुन समारोह में आने वाला है। ग्रेवाल ने फौरन एक टीम बनाई। सबको मजदूरों के कपड़े पहनाए और खुद सिख स्टूडेंट फेडरेशन के मुखिया दलजीत सिंह उर्फ बिट्टू बन गए।
वेन्यू पर पहुँचते ही उन्होंने गुरमुख के बेटे को अपनी पहचान बिट्टू बताई। इसके बाद वह उन्हें चानन के पास ले गया। 55 साल का चानन चरपाई पर बैठा था। उसे मालूम हो गया कि ये बिट्टू नहीं है और उसने ग्रेवाल पर गोली चला दी। खुशकिस्मती बस ये थी कि ग्रेवाल पूरी तैयारी के साथ उसको पकड़ने गए थे। कुछ ही सेकेंड में चानन का शव उनके हाथ में था।
डीएसपी के इस प्रयास ने उन पीड़ित परिवारों को थोड़ी राहत जरूर दी, जिन्होंने 1990 में अपने परिजनों को खो दिया था। लेकिन ये कहना कि घाव पूरी तरह भर गए, हमेशा असंभव होगा।
अबोहार की कहानी सामने लाने वाले मथुरा दास हितैषी
उक्त सारी कहानी और उसका अहम भाग, दिवंगत मथुरा दास हितैषी की किताब- ‘इतिहास के झरोखे से अबोहर’ से लिया गया है। उनकी किताब के कारण आज अबोहर की कहानी लोगों तक पहुँचने में सफल हुई। एक स्वतंत्रता सेनानी, हितैषी को उनका सरनेम उनके सामाजिक कार्यों के कारण मिला था। इसका अर्थ सबका भला करने वाला होता है। पीएनबी में बैंक मैनेजर रहते हुए और बाद में इंप्रूवमेंट ट्रस्ट का अध्यक्ष बनने के बाद भी उन्होंने कई लोगों की मदद की।